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Saturday 5 July 2014

आप जिस स्थिति में रहते हैं हमारे जन्म का क्या प्रयोजन है ? हम क्यों जन्में ? - इस तरह बार - बार विचार करें और यह भी सोचें कि क्या उस प्रयोजन की प्राप्ति हो सकती है ? हमें पाप क्यों लगता है ? काम - क्रोध आदि क्यों होते हैं ? ....................


आप जिस स्थिति में रहते हैं
 हमारे जन्म का क्या प्रयोजन है ? हम क्यों जन्में ? - इस तरह बार - बार विचार करें और यह भी सोचें कि क्या उस प्रयोजन की प्राप्ति हो सकती है ? हमें पाप क्यों लगता है ? काम - क्रोध आदि क्यों होते हैं ? निरन्तर आनन्द और प्रसन्न क्यों नहीं रहते? हमें इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं मिलता ।
इसलिये यह समझना चाहिये कि ये सभी हमारे हित के हैं । मान लीजिये , एक पेड़ है । उसके फूल से फल लगते हैं । फूल फूलता , तो उसमें महक आती है , वह नाक का विषय बनता है । फलता , तो उसमें स्वाद आता है ।
स्वाद आने के पहले फूल की क्या हालत है ? फूल में कडुआ है , कच्चे में खट्टा है और फल में मीठा है । यही मीठा शान्ति है । शान्ति के आने पर सभी इच्छाएँ छूट जाती हैं । जैसे फूल में मधुरता पूर्ण रूप से आने पर वह नीचे गिर पड़ता है , यह तो स्वाभाविक है । उसी प्रकार हृदय में माधुर्य पूर्ण रूप से भर जाय , तो सारी आसक्तियाँ अपने - आप मिट जाती है । जब तक खट्टा है , तब तक आसक्ति है । कच्चे को तोड़ने से उसके कांण अर्थात् डन्टल से पानी टपकता है । तात्पर्य है कि पेड़ कच्चे को न छोड़ना चाहता है और न कच्चे भी पेड से अलग होने को । अतएव पूर्णरूप से स्वाद के भर आने पर आसक्ति स्वयं मिट जाती है तथा फल अपने - आप गिर जाता है । पेड़ भी फल छोड़ देता है । जलरहित होने से दोनों राजी पड़ते हैँ । अर्थात् बिना दुःख के आनन्द से अलग हो जाता है । इस क्रम से उन्नति करने पर मन पूर्णतया माधुर्यमय बनता है । इस स्थिति में हर व्यक्ति प्रसन्नता से संसार रूपी वृक्ष से अनायास मुक्त हो जाता है । फल के पकने से पहले अर्थात् प्रारंभिक दशा में जैसे कडुवा और खट्टा वश्य होता है , वैसे ही काम - क्रोध , तनाव - उद्वेग आदि का होना स्वाभाविक है । इससे स्पष्ट होता है कि प्रारम्भिक दशा में एक दूसरे से मुक्त होने में राजी नहीं होते । परन्तु यह विचार करें कि कौतूहल , आसक्ति , क्रोध , मान - बडाई आदि क्यों होती ? उनसे क्या उपयोग है ? इस तरह यदि हम विचार न करें , तो वे हमें ठगाने का प्रयास करेंगे और हम भी उनसे ठगे जायेंगे । विचार करना जरा !
परन्तु बात है कि उसी स्थिति में टिके न रहें , जैसे कच्चा फलदार होता है , वैसे ही हमें भी आगे बढ़ते हुए प्रेम और शान्ति की भावना में प्रवृत्त होना चाहिए । इस प्रकार के अभ्यास करने पर हमें और कहीं मोक्ष - वोक्ष को ढूँढ़ने की जरूरत नहीं होती । जिस समय जैसा कर्म का पालन करना चाहिए , उसे दायित्वपूर्वक निभाते आवें , तो स्वतः मोक्ष रूप माधुर्य समाविष्ट हो जाता है । ऐसा न करके , यदि अपूर्णावस्था में प्रयत्न करे , तो वह कच्चे में पकने की स्थिति है , जिससे स्वाद पूर्णतया नहीं आता और प्रयोजनकारी न हो जाता है ।
 आज हम - आप जिस स्थिति में रहते हैं , उसी पर टिके रहना उचित नहीं । हमारे कर्त्तव्य - कर्म ढ़ेर - के - ढ़ेर है । उन्हें पूर्ण करने में अग्रसर होना चाहिए । इस स्थिति मेँ हमें परम ज्ञान की प्राप्ति के लिए न अधिक प्रयास करें और न तड़पते रहें । परम - ज्ञान की प्राप्ति की खोज में कहीं नहीं निकलना भी चाहिए । यह निश्चय कर लें कि यदि वह इस जन्म में न प्राप्त होता , तो अगले जन्मों में सही मिल जायेगा । अतः उसकी चिन्ता छोड़ अपने कर्तव्य - कर्मो का आचरण करें । वेद - निधि के अनुसार धर्माचरण करें । फलतः ज्ञान अवश्य क्रमरूप में समुद्भूत हो जाता है । हम अपने सांप्रदायिक एवं धार्मिक विचारों से ओतप्रोत बाह्य आचरण भी क्यों न हो , उन्हीं से प्रारम्भ करें तथा क्रमिक विकास से , अर्थात् कच्चे से फलदार की ओर अग्रसर होकर आन्तरिक तत्त्वों को ग्रहण करने में सक्षम हो जायेंगे ।

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