वही शरणागति को प्राप्त हो सकता है.………।
प्रेम की संपूर्णता और लावण्यता किसी का होने में है। प्रेम सहज स्वीकृति है; यह बलात नहीं किया जा सकता। जो सहज होगा, सरल होगा, विश्वासी होगा, वही प्रेम कर सकेगा। संभवत: इसीलिये भारतीय नारियों का स्थान सर्वोपरि है; उनके जैसा सहज होना कठिन है। पुरुष में अहंकार है, कुछ होने की भावना है, अधिकार है जो उनके प्रेमी होने में बाधा बनता है। नारी में सहज समर्पण है, सहज विश्वास है। विवाहोपरान्त वह अपना घर छोड़कर कितनी सहजता से एक अन्य परिवार को अपना लेती है और उसके ह्रदय में सहज स्वीकृति है कि अब वह परिवार भी उसका वैसे ही भरण-पोषण करेगा, जैसा उसके पिता ने किया था, कोई संशय नहीं कि यदि उन्होंने न किया तो?
जो प्रेमी है, वही शरणागति को प्राप्त हो सकता है सो यदि श्रीहरि को पाना है तो प्रथम तो प्रेमी होना होगा। प्रेमी की एक ही भावना होती है कि मुझे अपने प्रेमास्पद से प्रेम है, मेरे सारे कार्य-श्रृंगार, सेवा-पूजा एकमात्र उन्हीं के लिये है; बिना किसी शर्त के, कि प्रेमास्पद को भी मुझसे प्रेम है या नहीं। प्रेम में बदला नहीं होता, देना ही देना है, लेना है ही नहीं। जहाँ लेने की शर्त है, वहाँ प्रेम कैसा? प्रेमी हो तो ऐसा कि प्रियतम की ड्यौढ़ी को न छोड़े, भले ही प्रेमास्पद के द्वारा ही ठोकर क्यों न लगे, उसमें भी आभार माने कि प्रियतम का स्पर्श तो मिला, अहा ! कैसा सौभाग्य ! प्रेमी अपने सहज स्वभाव से अपने प्रेमास्पद को अपना बना ही लेता है, भले ही कुछ समय अधिक लग जाये लेकिन उसकी इच्छा ऐसा करने की नहीं होती कि प्रेमास्पद भी मुझे प्रेम करे ही करे किन्तु यह तो प्रेम किये का फ़ल है। प्रेमी फ़ल की आकांक्षा में कब प्रेम करता है? प्रेम का तो सहज स्वभाव है कि जब तक हैं, बिना शर्त तुम्हारे ! न रहेंगे तब भी तुम्हारे ही रहेंगे और जायेंगे कहाँ?
कबिरा कबिरा क्यों कहे, जा जमुना के तीर।
एक-एक गोपी प्रेम में, बह गये कोटि कबीर॥
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