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Friday 18 April 2014

उन्हें बाल स्वरूप कहा गया है। नवनाथों में सबसे अधिक चर्चित नाम मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ है।....


उन्हें बाल स्वरूप कहा गया है।
नवनाथों में सबसे अधिक चर्चित नाम मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ है। मत्स्येन्द्रनाथ को माया स्वरूप कहा गया है। संस्कृत में मा का अर्थ नहीं है तथा या का अर्थ है जो। अर्थात जो नहीं है किन्तु फिर भी है और इसके उलटक्रम से जो है किन्तु फिर भी नहीं है, वह माया है। मत्स्येन्द्रनाथ को दादागुरू कहा जाता है और जिस प्रकार परिवार में पितामह को अपने प्रपौत्रों से स्नेह व अनुराग होता है मत्स्येन्द्रनाथ को भी अपने पुत्र (षिष्य) महायोगी गोरक्षनाथ के पुत्रों (षिष्यों) से अनुराग है और परिवार में पितामह का अपने प्रपौत्रों की त्रुटियों को क्षमा करने की स्वाभाविक प्रवृति वाला होने से मत्स्येन्द्रनाथ को कृपालु भी कहा जाता है। निसन्देह सीखने की किसी भी पद्धति और प्रकि्रया में षिक्षार्थी से त्रुटी होना संभव है, नाथ सम्प्रदाय के दादा गुरू मत्स्येन्द्रनाथ कृपापूर्वक उन त्रुटियों को क्षमा कर देते हैं। नाथयोगियों की मान्यता अनुसार जीवन षिव और उसकी निजाषकित का खेल है और सम्पूर्ण चराचर जगत का प्रपंच षिव द्वारा स्थापित विधि के अनुरूप ही होता है। यदि जीव इस सत्य को पहचानने में असफल होता है तो यह उसके स्वयं के विवेक और दृषिट की असमर्थता है और गुरू हमारे ज्ञान चक्षुओं को इस सत्य को पहचानने में समर्थ बनाता है। जीव जब दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृति को छोडकर स्वयं के कर्मों के उत्तरदायित्व को स्वीकार करना प्रारंभ करता है तो जीवन का प्रत्येक क्षण स्वयं षिक्षक बन जाता है। स्वयं षिक्षा की यह प्रकि्रया अनुषासित (अनुभव द्वारा शासित) जीव को जीवन भर त्रुटि रहित षिक्षा देती है जिससे योगी में विष्वास, विनम्रता एवं विषुद्ध व्यवहार के गुणों का स्थायी वास हो जाता है और तब कुण्डलिनी शकित जागृत होकर निरन्तर, निर्बाध व नि:षेष रूप से सुषुम्णा नाडी में गमन करती है।
शरीर मेंं जीव (आत्मा (विष्णु) का पुत्र) मत्स्येन्द्रनाथ का प्रतीक है, जो मछली के समान चंचल इनिद्रयों वाला है। यह जीव शरीर के सम्पूर्ण भागों मेंं विचरण करता है। वासना से संबद्ध होने के कारण अपनी रुचि के विषय से साक्षातकार होने पर वह अपने मूल स्वरूप को भूल जाता है और आनन्दरत रहते हुए संयम को अस्वीकार करने लगता है। वासनाओं के इस जाल मेंं उलझे हुए मत्स्येन्द्रनाथ अर्थात जीव को गोरक्षनाथ अर्थात इनिद्रयनिग्रही विचार से ही मुकित मिलती है। घट अर्थात शरीर और पिण्ड अर्थात शरीरस्थ समस्त तत्त्वों की नित्य और निरन्तर रक्षा करने के कारण गोरक्षनाथ अर्थात इनिद्रयनिग्रही विचार का नाम शम्भुयति कहा जाकर उन्हें बाल स्वरूप कहा गया है।

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