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Friday 25 April 2014

जब मैने परमात्मा को अपने भीतर देखा,जाना,तभी मेरा मन परमात्मा को मानने लगा और यदि मनमुख लोग इस बात को नहीं स्वीकारते,तो मैं क्या करूँ ?...............


यह दावा तो केवल और केवल एक पूर्ण संत ही कर सकते है
जब मैने परमात्मा को अपने भीतर देखा,जाना,तभी मेरा मन परमात्मा को मानने लगा और यदि मनमुख लोग इस बात को नहीं स्वीकारते,तो मैं क्या करूँ ? न करें स्वीकार !
यह बात अगर आज भी किसी मनुष्य को समझाई जाए,तो वह स्वीकार नहीं करता। लोगों ने परमात्मा को केवल मानने तक ही सीमित कर दिया है । कोई भी उसे जानने का कोशिश नहीं करता । जब बात ईश्वर दर्शन के विषय में आती है,तो लोगो को हजम नही होती । वे अपने व्यर्थ तर्को द्वारा इस तथ्य को झूठा ठहराने की कोशिश करते है । जब कि महापुरषों ने कभी ऐसा नही किया । उन्होने परमात्मा को केवल माना नही,अपितु जाना भी। आप जरा क्ल्पना करे कि एक बेटा अपने पिता को जाकर कहे के,'पिता जी,मै आप को अपना पिता मानता हूँ। तो ऐसे मे वह पिता क्या सोचेगा ? यही न कि, 'अरे मूर्ख ! अभी तू मुझे केवल अपना पिता मान ही रहा है ! तुने अभी तक जाना नही कि मै तेरा पिता हूँ । कितनी हस्यास्पद बात है न यह !
पर जरा ठहरे ! क्या यह ह्स्यस्पद बात हम लोगो पर लागू नही होती? हम भी तो आज अपने परम पिता परमात्मा को 'मानने' का ही दावा करते है। उसे 'जान ने' का दावा हम मे से कितने लोग करते है ? यह दावा तो केवल और केवल एक पूर्ण संत ही कर सकते है या फिर उनके शिष्य जिन्हें उन्होने दीक्षा प्रदान की है । 'दीक्षा' का अर्थ ही होता है - 'दिखाना' अर्थात 'जानना' । 

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