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Monday 14 April 2014

जीवन का मूल उद्देश्य है -शिवत्व की प्राप्ति ।.……। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ॐ है।.....


इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ॐ है।
जीवन का मूल उद्देश्य है -शिवत्व की प्राप्ति ।.……।  उपनिषद् का आदेश है – “ शिवो भूत्वा शिवं यजेत् “  शिवबनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न उठता  है - हम शिव कैसे बनेंएवं  अपने में  शिवत्व का कैसे जागरण  करें ?  इसकाउत्तर देते हुए हमारे महामानव ऋषि उद्घोषणा करते है - “ नमः शिवाय ’ । “नमः शिवाय “ यह  एक मंत्र ही नहीं महामंत्र है । इस “ नमः शिवाय “ को महामंत्र हमारे मनीषि ऋषियों ने  इसलिएकहा है कि यह आत्मा का जागरण करता है । हमारी आध्यात्मिक यात्रा इससे सम्पन्न होती है। यह किसी कामना पूर्ति का मन्त्र नहींहै। यह मंत्र है जो हमारी समस्त  कामनाओंको समाप्त कर देता है , समस्त   इच्छाओं को मिटा देता है । एक मंत्र होता वह  है जो कामना कीपूर्ति करता है  और एक मंत्र वह होता है जोसमस्त  कामनाओं को समाप्त करने वाला होताहै। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है । कामनापूर्ति और इच्छा पूर्ति का स्तर बहुत नीचे कास्तर होता है ! ऐसा हमारे आचार्यचरणों ने कहा है ।  मनुष्य की जब  ऊर्ध्व चेतना जागृत हो जाती  है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धिवही है , जिससे कामना और इच्छा का अभाव हो सके।
एक बड़ा ही सुन्दर आख्यान है –
एक अत्यन्त गरीब के पास एक महात्मन्आये । वह व्यक्ति गरीब तो था पर था बड़ा  संतोषी एवं भगवान में अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने वाला। उसकी गरीबी पर तरश खाकर महात्मन का ह्रदयपिघल गया ! और उन महात्मन ने उस श्रधावान गरीब भगवान  के भक्त से कुछ भी मांगनेके लिए अनुग्रह करदिया !  लेकिनगरीब व्यक्ति ने कुछ भी नहीं मांगा। तो साधु बोला कि मैं किसी को देने की सोच लेता हूँ तो  उसे पूरा करना मैं अपना  कर्तव्य समझता हूँ । अतः मैं तुझे पारस दे देता हूं जिससे तुम अपनीगरीबी को दूर कर सकोगे।तब उस गरीब व्यक्ति ने निवेदनकिया, ‘ हे महात्मन् । मुझे इन सांसारिक सुखों की चाह नहीं है। मुझे तो वह चाहिए जिसे पाकर आपने पारसको ठुकराया है जोपारस से भी ज्यादा कीमती है वहमुझे दे दें । ’
जब व्यक्ति के अन्तस की चेतना जागृत हो जाती है तब वह कामना पूर्ति के पीछे   भागता – दौड़ता नहीं । वह उसके पीछे दौड़ता है तथा उस मंत्र की खोज करता है जो कामना को नष्ट कर दे । काट दे । “ नमः शिवाय “  इसीलिए महामंत्र है कि इससे इच्छा की पूर्ति नहीं होती अपितु इच्छा के  स्रोत ही सूख जाते  है। जहां सारी इच्छाएं समाप्त , सारी कामनाएं समाप्त , वहांव्यक्ति पूर्ण निष्काम हो जाता है। पूर्ण निष्काम भाव ही मनुष्य का  निजस्वरुप है परमशिव का स्वरूप है।
इस “ नमः शिवाय “ महामन्त्र से ऐहिक कामनाएं भी पूर्ण  होती हैं किन्तु यह इसका मूल  उद्देश्यनहीं है । इसकी संरचना अध्यात्म जागरण के लिए ही हुई है , कामनाओं की समाप्ति केलिए हुई है । यह एक तथ्य है कि जहां बड़ी उपलिब्ध होती है , वहां आनुषंगिकरूप में अनेक छोटी उपलब्धियां भी अपने आप हो जाती है। छोटी उपलब्धि में बड़ी उपलब्धि नहीं होती किन्तु बड़ी उपलब्धिमें छोटी उपलब्धिसहज हो जाती हैं । कोई व्यक्तिलक्ष्मी के मंत्र की आराधना करता है तो उससे धन बढ़ेगा। सरस्वती के मंत्र की आराधना से ज्ञान बढ़ेगाकिन्तु अध्यात्म काजागरण या आत्मा का उन्नयन नहींहोगा क्योंकि छोटी उपलब्धि के साथ बड़ी उपलब्धिनहीं मिलती । जो व्यक्ति बड़ी उपलब्धि के लिए चलता है, रास्ते में उसेछोटी-छोटी अनेक उपलब्धियां प्राप्त हो जाती हे। यह मंत्र महामंत्र  इसलिएहै कि इसके साथ कोई मांग जुड़ी हुई नहीं है। इसके साथ केवल जुड़ा है - आत्मा का जागरण , चैतन्य काजागरण , आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय। जिस व्यक्ति को परमात्मा उपलब्ध होगया, जिस व्यक्ति को आत्म जागरण उपलब्ध हो गया, उसे सब कुछ उपलब्ध हो गया , कुछ भी शेष नहीं रहा। इस महामंत्र के साथ जुड़ा हुआ है - केवल चैतन्य काजागरण। सोया हुआ चैतन्यजाग जाए। सोया हुआ प्रभु, जो अपने भीतर है वह जाग जाए, अपना परमात्मा जाग जाए। जहां इतनी बड़ी स्थिति होती है वहां सचमुच यहमंत्र महामंत्र बन जाताहै ।
मंत्र क्या है ?मंत्र शब्दात्मक होते है । उसमेंअचित्य शक्ति होतीहै। हमारा सारा जगत् शब्दमय है ।शब्द को ब्रह्म माना गया है । “शब्दं ब्रह्मेति “ मन के तीन कार्य हैं –

“ स्मृति , कल्पना एवं चिन्तन । “

मन प्रतीत की स्मृति करता है ,  भविष्य की कल्पना करता है और वर्तमान का चिन्तन करता है ।किन्तु शब्द के बिना नस्मृति होती हैं , न कल्पना होती है और न चिन्तन होता है ।
सारी स्मृतियां ,सारी कल्पनाएं और सारे चिन्तनशब्द के माध्यम से चलते हैं । हम किसी की स्मृति करतेहैं तब तत्काल शब्द की एक आकृति बन जाती है। उस आकृति के आधार पर हम स्मृत वस्तु को जान लेते हैं । इसी तरह कल्पनाएवं चिन्तन में भी शब्दका बिम्ब ही सहायक होता है। यदिमन को शब्द का सहारा न मिले,यदि मन को शब्द की वैशाखी न मिले तो मन चंचल हो नहीं सकता। मनलंगड़ा है , पंगु है ।
मन की चंचलतावास्तव में ध्वनि की , शब्द की या भाषा की चंचलता है ।
मन को निर्विकल्पबनाने के लिए शब्द की साधना बहुतजरूरी है।
स्थूल रूप से शब्द दो प्रकार का होता है -
{ १ } : जल्प ( २  ) : अन्तर्जल्प ।
हम बोलते हैं ,यह है जल्प। जल्प का अर्थ है - स्पष्टवचन , व्यक्त वचन । हम बोलते नहीं किन्तु मन में सोचते हैं , मन में विकल्प करते हैं , यह है अन्तर्जल्प।मुंह  बंद है, ओठ  स्थिर है , न कोई सुन रहा है फिर भी मन में हम  बोलते  चला जा रहे हैं  ,यह है अन्तर्जल्प। सोचने का अर्थहै - भीतर बोलना ।सोचना और बोलना दो नहीं है – नारायण । सोचने के समय में भी हम बोलते हैंऔर बोलने केसमय में भी हम सोचते हैं। यदि हमसाधना के द्वारा निर्विकल्प या निर्विचार अवस्था कोप्राप्त करना चाहते हैं ,तो हमें शब्द को समझकर उसकेचक्रव्यूह  कोतोड़ना होगा। शब्द उत्पत्तिकाल में सूक्ष्म होता है और बाहर आते -आते स्थूल बन जाता है । जो सूक्ष्म  है वह हमें सुनाई नहीं देता , जो स्थूल है वही हमेंसुनाई देता है। ध्वनि विज्ञान के अनुसार दो प्रकार की ध्वनियां होती है – “ श्रव्य ध्वनि “ और “ अश्रव्य ध्वनि “।अश्रव्य ध्वनि जिसे आंग्लभाषा में UltraSound Super Sonic कहते हैं ! यह सुनाई नहीं देती। हम अपने कर्णपुटों के द्वारा  केवल ३२४७० { बत्तीस हजार , चार सौ , सत्तर }  कंपनोंको ही पकड़ सकते  है । कम्पन तो अरबों होते हैं किन्तु हमारेश्रोत्रेन्द्रिय ३ २ ४ ७ ०  आवृत्ति के  कम्पनों को ही पकड़ सकता है । यदि हमारे  कान सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने लग जाए तो हम जी ही  नहीं सकते । यह समूचा आकाश ध्वनि तरंगों सेप्रकम्पित है । अनन्तकाल से इस आकाश में भाषा - वर्गणा के पुदगलबिखरे पड़े हैं। बोलते समयभाषा वर्गणा के पुदगल निकलते हैंऔर आकाश में जाकर स्थिर हो जाते हैं ।  हजारों लाखों वर्षों तक वे उसी रूप में रह जाते हैं।मनुष्य जो सोचता है ,उसके मनोवर्गणा के पुद्गल करोड़ोंवर्षों तक आकाश में अपनी आकृतियां बनाए रखता  हैं। यह सारा जगत तरंगों से आन्दोलित हैं।विचारों की तरंगे , कर्म की तरंगे ,भाषा और शब्द की तरंगे पूरे आकाशमें व्याप्त है। मंत्र एकप्रतिरोधात्मक शक्ति है , मंत्र एक कवच है और मंत्र एक महाशक्ति है। शक्तिशाली शब्दों का समुच्चय ही मंत्र है। शब्द मेंअसीम शक्ति होती है।
‘ नमः शिवाय ’ महामंत्रमें तीन शब्द है। “ नमः शिवाय “ । इसमें पांच अक्षर है।इसे पंचाक्षरी महामंत्र भी कहते हैं। पंचाक्षरी इसलिए कि यह  अक्षरातीतहै । ‘नमः शिवाय ’ में पांचअक्षर है।  ब्रह्म,  को प्रणव आदि नामों से पुकारा जाता है । उपनिषदों में कहा गया है -  ‘ ओम् इति ब्रह्म ’ ओम् ब्रह्म है। अक्षरका अर्थ जिसका कभी क्षरण न हो । ऐसे तीन अक्षरोँ - अ उ और म से मिलकर बना है ऊँ । माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ऊँ की ध्वनी निसृत होती रहती है । नारायण । हमारी और आपके हर श्वास ऊँ की ही ध्वनि ही निकलती है । यही हमारे - आपके श्वासकी गतिको नियंत्रित करता है । माना गया है कि अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली है ऊँ । किसी भी मंत्रसे पहले यदि ऊँ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति - समपन्न हो जाता है । किसी देवी - देवता , ग्रह या ईश्वरके मंत्रोँ के पहले ऊँ लगाना आवश्यक होता है , जैसे - श्रीराम का मंत्र - ऊँ रामाय नमः । विष्णु का मंत्र - ऊँ विष्णवे नमः । शिवका मंत्र ऊँ नमः शिवाय प्रसिद्ध है । नारायण , कहा जाता है कि ऊँ से रहित कोई मंत्र फलदायी नही होता , चाहे उसका कितना भी जाप हो । मंत्रके रूपमेँ मात्र ऊँ भी पर्याप्त है । माना जाता है कि एक बार ऊँ का हजार बार किसी मंत्रके जाप से महत्वपूर्ण है । ऊँ का दूसरा नाम " प्रणव " ( परमेश्वर ) है । " तस्य वाचकः प्रणवः " अर्थात् उस परमेश्वरका वाचक प्रणव है । इस तरह प्रणव अथवा ऊँ एवं ब्रह्ममेँ कोई भेद नही है । ऊँ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीँ होता ।
पातंजल योगसूत्र में कहा गया है- ‘तस्य वाचकप्रणवः’ प्रणव ईश्वर कावाचक है। ब्रह्म एक अखण्ड अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्द ब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित किया गया है। शब्दब्रह्म को भली भांतिजान लेने पर परब्रह्म कीप्राप्ति होती है।
‘शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ’
शब्द ब्रह्म को जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है। जिसे औंकार कहते हैंयही शब्द ब्रह्म है।इस चराचर विश्व के जो वास्तविकआधार हैं, जो अनादि, अनन्त औरअद्वितीय हैंतथा जो सच्चिदानंद स्वरूप है उसनिर्गुण निराकार सत्ता को हमारे शास्त्रों ने ब्रह्मकी संज्ञा दी है। इसी ब्रह्म का वाचक शब्द ॐ  है।..... पं मं डी वशिष्ट 

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