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Thursday 1 May 2014

मृत्यु के बाद, शरीर की इंद्रियाँ नहीं होतीं मन की शांति के सभी उद्योगों को कर्म कहते हैं। कर्म का यही एक लक्ष्य है। विश्राम भी कर्म है क्योंकि निद्रा के समय मन, इंद्रियों को संभालने के उत्तरदायित्व से मुक्त रह या उन पर निर्भर नहीं रह, .....


मृत्यु के बाद, शरीर की इंद्रियाँ नहीं होतीं

मन की शांति के सभी उद्योगों को कर्म कहते हैं। कर्म का यही एक लक्ष्य है। विश्राम भी कर्म है क्योंकि निद्रा के समय मन, इंद्रियों को संभालने के उत्तरदायित्व से मुक्त रह या उन पर निर्भर नहीं रह,  सोता है। निद्रा की इस अवस्था में शरीर के आवश्यक कर्म होते रहते हैं और, आत्मा जो कभी नहीं सोती, सदैव जगती ही रहती है। केवल आत्मा ही चेतन है। इसलिए, मन जो प्राकृतिक यंत्र है को वही आत्मा उसे निद्रा से जगाती है। आत्मा ही वह कारण है जिससे मन की यह शांति स्थिर नहीं होती और वह पुन: कुछ घंटों की योग निद्रा के उपरांत इस संसार में वापस लौट आता है। चिन्तित व्यक्ति को जिस कारण निद्रा नहीं आती वही कारण जीवात्मा के पुनर्जन्म लेने का भी है। अधूरे काम जब तक पूरा नहीं होते, निद्रा या चिर-निद्रा स्थायी नहीं हो सकती। 

मृत्यु को चिर निद्रा कहते हैं। देहांत, या देह के न रहने, या मृत्यु के बाद, शरीर की इंद्रियाँ नहीं होतीं इसलिये मन के पास अपने लिए अधिक वक्त रहता है। तब, वह आत्मा पर ही निर्भर रहता है और आत्मा के संकल्प से ही उसका पोषण होता है। विचार (जिसे प्राण भी कहते हैं) जो हर एक प्राणी में बहते हैं, और वही देहधारियों और बिदेही जीवों (देह रहित जीवों) दोनों, के कर्म हैं। 

निद्रा उसी तरह है जैसे शनि-रविवार को साप्ताहिक छुट्टी होती है जब मन थोड़ा आराम कर लेता है, किन्तु देहांत उस तरह है जैसे जब एक सरकारी अधिकारी, साठ साल बाद अपने पद से अलग कर दिया जाता है। पद का यह अर्थ (पदार्थ) या शक्ति छोड़ते ही, उस सरकारी अधिकारी का अहंकार या दिखावा भी समाप्त हो जाता है, और उसका वह  पद न रहने के कारण  कोई उसे नहीं पूछता। वह अधिकारी, जबकि नौकरी छूटने के बाद भी  उतना ही ज्ञानी और शातिर है किन्तु पद पर न रहने से, उसका अहंकार नष्ट हो जाता है। और जीवन में यदि उसने कोई अच्छा काम किया होगा या उसका व्यवहार नागरिकों के साथ यदि अच्छा रहा है, केवल तभी उसका रिटायर्ड जीवन सम्मान के साथ बीतता है।  यही देहांत है, संगठन के पद या शरीर, के संबंध न रहने पर, जीवों के संबंध वही रहते हैं जो उसके जीवन भर के चरित्र की कमाई है, और जो लोगों के मन में स्थिर हो गया है। जिस अधिकारी को पद का अहंकार नहीं होता वह चाहे किसी भी पद पर रहे, या न भी रहे तब भी उसकी मन पर, छोड़ी छाप उसके सम्बन्धों का महत्व उनके पद पर न रहते या देह-त्याग के बाद भी कम नहीं होती।  गांधी आज भी जीवित हैं। मन में उनका स्थान दीर्घ जीवी है जबकि उनके शरीर की अवधि सीमित है। सभी जीव अपने कर्म से मन के आकाश में ही जीते हैं और मन में ही जब चाहें उनसे जुड़ा जा सकता है। मन, विचारों या प्राण से निर्मित है इसलिये वही जीवों में संचार का एक मात्र साधन है।   

जीव का स्थान मन में होता है जबकि शरीर उसका तात्कालिक दर्शन है। देहांत और देह-जन्म दोनों के बीच की अवस्था सीमित अवधि के लिए है जबकि मन के विचार अव्यक्त होते हुये भी बहुत बलवान होते हैं।  विचार जिसे प्राण कहते हैं अद्भुत बल है। जिस तरह हजारों टन की ट्रेन को एक पतला सा लटकता हुआ बिजली का तार खींचता है उसी तरह छोटे से छोटे और बड़े से बड़े देहधारी जीवों जैसे अमेरिका के शासक, नोबल प्राइज़ प्राप्त विद्वानों, कुबेर  व्यवसायियों  को संसार में फैले  विचार बड़ी सरलता से इधर उधर खींचते रहते हैं।  प्राण, स्वयं दृश्य या देह-धारी नहीं होता किन्तु सभी जीव जो शरीर और इंद्रियों से युक्त हैं, उनको नियंत्रित करते हैं। अर्थात, देह-धारियों को नियंत्रित करने वाले वे विचार हैं जो स्वयं देह-धारी नहीं हैं। देहांत के बाद और देह जन्म के पहिले, हम सभी उसी प्राण या  विचार की बिदेह अवस्था में ही रहते हैं। इस परलोक में कौन नहीं रहा है? 

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