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Saturday 10 May 2014

जो बाँटते हो. वह कई गुना होकर आपके पास लौटकर आता है जब हम प्रभु का विश्वास नहीं कर .............


जो बाँटते हो. वह कई गुना होकर आपके पास लौटकर आता है
जब हम प्रभु का विश्वास नहीं कर पाते तो उनकी कृपा पर भी विश्वास नहीं हो पाता। सुह्रदय प्रभु ने हमारे जन्म से पहिले ही इस जीवन की मूलभूत आवश्यताओं की पूर्ति की व्यवस्था कर दी थी, धार्मिक दिखने का एवं प्रभु पर विश्वास दिखाने के लिये हम सबके सामने तो इस तथ्य को स्वीकारते भी हैं और जोरदार तरीके से पक्ष भी लेते हैं। परन्तु "अकेला" होते ही हम अपने "वास्तविक स्वरूप" में आ जाते हैं। संदेह बना ही रहता है, स्वय़ं ही स्वय़ं को तर्क-कुतर्क देते हैं और विश्वास-अविश्वास के बीच झूलते रहते हैं।
"मेरे बिना किये तो होगा नहीं ? मैं नहीं करूँगा तो कैसे होगा ? मेरे परिवार को कौन देखेगा ? भोजन के लिये भी हाथ तो उठाना ही प्ड़ता है ? आखिर प्रभु ने मुझे विवेक-बुद्धि भी तो इसीलिये दी है कि मैं अपना और अपने परिवार का ठीक ढंग से भरण-पोषण करू ? दूसरी ओर -"सब प्रभु ही करते हैं, उनकी इच्छा के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता, हमारी क्या सामर्थ्य है"? उनकी जैसी इच्छा होगी, वह होगा, हम तो यंत्र हैं, कठपुतली हैं साहब। अब यह चिंतन करना है कि हमारी क्या स्थिति है। 
कैसा अदभुत आश्चर्य है कि हम इन दोनों ही विपरीत बातों पर पूर्ण विश्वास का दावा करते हैं! सत्य तो यह है कि जीवन भर हम अपने आपको महत्वपूर्ण दर्शाने का ही प्रयत्न करते हैं जबकि मृत्यु हमें दिखाती है कि किसी के गुजर जाने से किसी का भी गुजारा प्रभावित नहीं होता क्योंकि अकारणकरूणावरूणालय प्रभु ने सबकी व्यवस्था पहिले ही कर रखी है।
प्रभु ने हमें विवेक-बुद्धि इसलिये दी है ताकि हम पशु की भाँति केवल निज सुख के लिये न जीवें वरन भौतिक सुखों की अपेक्षा हम अपने पारमार्थिक कल्याण को महत्व दें क्यॊंकि यह मनुष्य योनि, जीव मात्र के लिये , प्रभु की विशेष अनुकंपा है, अनुग्रह है। विवेक-बुद्धि का उपयोग करते हुए हम अपने एवं जीव मात्र के कल्याण के लिये विशेष प्रयत्न करें न कि उस बुद्धि का प्रयोग छ्ल-कपट, दूसरों को दुख पहुँचाने अथवा उनकी संपत्ति को हड़पने एवं सज्जनता का दिखावा करने में करें।
सत्य तो यह है कि संसार का नियम है कि आप जो बाँटते हो. वह कई गुना होकर आपके पास लौटकर आता है। आप प्रेम या सम्मान देते तो तो वह कई गुना होकर आवेगा इसी प्रकार दुख एवं अपमान भी। दुख की बात तो यह है कि गीता का सार सबको याद है - "तुम्हारा क्या है, जो तुम ले जाओगे, तुम क्या लाये थे ,,,,,"? लेकिन हम इतने "प्रैक्टिकल" हो गये हैं कि "अच्छी लगबे वाली चीजें", जो हमें अपने काम की नहीं लगतीं, उन्हें तो सबको बाँटते रहते हैं और अपने लिये "आवश्यक लगने वाली भौतिक सुविधाओं के लिये" हम किसी को आर्थिक, मानसिक दुख पहुँचाने और छ्ल-कपट में भी कोई कसर बाकी नहीं रखते।
दुविधा तो यह है कि प्रभु से हमारी नित्य-निरन्तर दूरी इसलिये ही बढ़ती जाती है कि जो हमें अपने पास रखना है, वह तो हम बाँट रहे हैं और जो बाँटना है, उस पर कब्जा करके बैठ जाते हैं और फ़िर प्रलाप करते हैं - "हे प्रभु ! कहाँ हो ? कब मिलोगे" ? 
हमने क्या कभी सोचा है कि प्रभु से दूरी तो कभी थी ही नहीं, वह तो हमने बनाय़ी, स्वय़ं ही उसकी ओर खुलने वाला द्वार बंद किया और अपने अनुसार "सुखद स्थिति" में पहुँकर जोर-जोर से पुकार रहे हैं,- " हे प्रभु ! द्वार खोलो, हमें मिलना है"!
विवेक-बुद्धि का उपयोग यहीं पर है कि कदाचित हमने भूल से द्वार बंद कर दिया हो तो हम स्वयं यथाशीघ्र उसे खोलें। प्रभु कृपा से यदि द्वार बंद न किया हो तो स्मरण रखें कि ऐसी भूल न होने पावे ताकि जब आपकी नजर उठे, वह आनंदघन, मुस्कराता हुआ, अपनी मोहिनी से मोहित करता हुआ, आपके सामने हो और यही इस मनुष्य योनि का श्रेष्ठतम फ़ल है, लक्ष्य है।

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